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Sunday, November 27, 2016

डियर ज़िंदगी

"तुम्हारे बचपन की अच्छी मेमोरी क्या है.."

नहीं है.. नहीं है कोई "अच्छी" मेमोरी.. एक भी नहीं शायद.. और सम्भवत इसी वजह से हम होश सम्भालने के बाद से अच्छी मेमोरी की तलाश में रहते हैं. शायद इसलिए बार बार प्यार करते हैं और उस पूरी प्रक्रिया के दौरान इस डर में होते हैं कि ये भी रिश्ता भी अच्छी मेमोरी जुटाने से ना चूक जाए.

रघु अचार

सच्चाई है. प्यार में होने से उस इंसान के नाम के प्रॉडक्ट्स और प्रचार हमें आसानी से दिख जाते हैं. या वो सब ad हमारे आसपास ही होते हैं पर हमें प्यार में पड़ने के बाद ही नज़र आते हैं. मुझे सोप केस से लेकर टूर एंड ट्रैवल/कोचिंग सेंटर के ad तक में हर बार वो नाम नज़र आए जिनके प्यार में मैं रही. जैसे रघु अचार के डब्बे को देखकर उतना ही प्यार आता है, लेकिन बाद में उतना  ही ग़ुस्सा कि उसे तोड़ डाले.

जग द थेरापिस्ट

कायरा की हाउस हेल्पर अलका ने कहा, "अगर ऐसा भी डॉक्टर होता है तो हम सब को जाना चाहिए.." हम्म! हम सब को जाना चाहिए. स ब को. और ये भ्रम तोड़ना चाहिए कि हमारा दिमाग़ ख़राब है इसलिए हम डीडी (दिमाग़ का डॉक्टर) के पास जा रहे. बल्कि डीडी तो ज़रूरी है. मानसिक स्तर पर हम सब की अपनी अपनी लड़ाइयाँ होती हैं, कोई छोटी बड़ी नहीं. परेशानी परेशानी होती है, उसकी कोई रेंज नहीं होती और उसको मापने-जोखने का कोई तरीक़ा भी नहीं होना चाहिए. बल्कि सारी जद्दोजहद हर किसी की परेशानियों से लड़ने की ताक़त जुटाने पर होनी चाहिए.

फ़ैमिली

असल में ये मानसिक मसला वहीं कहीं से शुरू हुआ होता है. लेकिन 'सब ठीक है सब कुशल है' की आड़ में हम भी अच्छे बने रहने का नाटक करते रहते हैं. एक और बात, जो यहाँ शिंदे ने बहुत अच्छा दिखाया कि परिवार वाले अपनी पूरी ताक़त लगाकर हम से वो सब बातें करने की कोशिश तो करते हैं.. पर 'हमने पाला हमने पोसा'  के चक्कर में फिर पिछड़ जाते हैं. जैसे कायरा के रिश्तेदार उससे ये माडर्न सवाल पूछ तो लेते हैं कि "तुम लेबनीज़ तो नहीं!.. हाँ हाँ लेसबो.. तो नहीं हो ना?" लेकिन फिर बचपन में उसकी हर बात पे मुँह बनाने की बात को सबके सामने ले आते हैं. ये तुलनात्मक शोषण वहीं से घर करता है.

इममच्योर

अधिकांश लड़ाइयों और मनमुटाओं में सामने वाले को immature कहकर नीचा दिखा देना सबसे आसान काम है. कायरा को भी वही सुनना पड़ा. साथ सोने के लिये वो काफ़ी परिपक्व थी लेकिन अपनी बात चिल्लाकर और कांपती हुई आवाज़ में बोलने पर वो immature हो गयी.

बहरहाल, इंग्लिश विंग्लिश देखने के बाद भी गौरी शिंदे के लिये ताली बजाने का मन हुआ था और इस फ़िल्म के ख़त्म होने पर भी. हालाँकि जहांगीर ख़ान के साथ हुए पूरे थेरपिस्ट-सेशन को थोड़े और कठिन मानसिक उलझनों वाली बातचीत के साथ दिखाया जा सकता था.. लेकिन बड़ी बात ये है कि मेनस्ट्रीम की एक टीम ने इस मुद्दे पर फ़िल्म बनाने का साहस किया है जिसकी तारीफ़ होनी चाहिए.

#DearZindagi 

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