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Wednesday, December 10, 2014

ख़त में लिपटी रात... (३)

चोर हो तुम । हाँ, कोई संबोधन नहीं देना है मुझे तुम्हें.. हर बार कोई ख़त ना लिखने का फ़ैसला करती हूँ, लेकिन हर बार कुछ लिखने का मन कर जाता है । तुम्हें भी हर बार मुझे नाराज़ करने की आदत पड़ी है । जानबूझकर नाराज़ करते हो ना मुझे? बस, नाराज़ करके छोड़ देते हो.. एक दफ़ा याद भी नहीं करते । तुम्हीं ने एक बार कहा था ना कि मुझे नाराज़ होने का बहाना चाहिए.. यही समझ लो, पर इस बहाने के बहाने प्यार से गले लगाने भी नहीं आओगे, ये कहाँ पता था ! प्यार करते भी हो मुझसे और नहीं भी । पास चाहते भी हो और नहीं भी । इसलिए कहती हूँ चोर हो तुम । प्यार करते हो तो फिर बताते क्यूँ नहीं ! ऐसा कौन सा तूफ़ान आ जाएगा इज़हार करने से ? चुप छुप के अपनी नज़्मों में मुझे लिखते हो और पूछने पर कहते हो कि मैं किसी के लिए कुछ नहीं लिखता । फिर अब अपनी हर नज़्म में मुझे क्यूँ सजाते हो ? तुमसे अब बात नहीं करती फिर भी याद नहीं करते मुझे । तुम्हारे कुछ बोलने से मुझे कितनी ख़ुशी होगी, ये बेहतर जानते हो तुम । फिर भी । मेरी लंबी बातों का अब भी दो शब्दों में जवाब देते हो तुम । ज़्यादा बोलने से ज़बान जलती है क्या तुम्हारी ! चोरों की तरह चुरा लिया । और चोरों की तरह प्यार करते हो । साथ रहते भी हो पर पास नहीं रहते । अब कहोगे, प्यार नहीं करता । अगर प्यार नहीं करते तो इतना याद क्यूँ आते हो ? मांगने पर भी कुछ नहीं दिया तुमने मुझे । पूछा तक नहीं । तुम मुझे कुछ दे ही नहीं सकते । सिवाय इस अजीब से एहसासात के । तुम मुझे कुछ नहीं दे सकते... प्यार भी नहीं ।

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