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Friday, May 30, 2014

अब्र और बूंद

आज बूंदों से कर ली जी भर की बातें
जो कुछ कहना था तुमसे
कह दी वो सारी बातें
वो भी कुछ कहानी कहती रही
झूम कर बरसती रही
तड़प के गिरती.. बिलखती
कुछ कहती फिर हल्के से मुझे चूमती

कुछ दिनों पहले की बात है
अब्र का एक टुकड़ा भी
आसमान में तुम-सा
ख़ामोश और सहमा पड़ा था
कभी-कभी हल्का गरजता
बूंदों से कुछ कहता
बूँदें रूठकर रोती हुई
ज़मीं पर चली आती थी

अब्र बूंदों की बात नहीं समझ पाता
बूंदें अब्र की ख़ामोशी नहीं पढ़ पातीं
अब्र गरज कर आँखें दिखाता रहा
बूंदें चुपचाप बरसती रही

अब्र भी टूटा है आज
बिखर कर ज़मीं पर गिरा है आज
बूंदों की तड़प समझ पाए शायद !

अब ढूंढ रहा दर-बदर
बूंद को हर इक पहर
बेख्याली में ये एहसास तक नहीं
बूँद को ढूँढने में
अब्र अब ख़ुद बूँद हो चला है...

अब्र* - cloud

4 comments:

  1. सच कहूँ तो एक शानदार कविता है अर्थ और भावों को एडिटिंग की कसौटी पर कसी हुई एक छाप छोड़ती है। स्थापित लेखकों वाली ठसक भी आँचल की अभिव्यक्ति में झलकी है। ............बधाई

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  2. अनुज भाई ने ट्विटर पर लिंक दिया तो एक खूबसूरत कविता पढने को मिली। उनका धन्यवाद! कविता की तारीफ़ शब्दों में कम और भावनाओं में अधिक संभव है जो यहाँ प्रदर्शित करना असम्भव है। लम्बे समय बाद इतनी भावप्रवण कविता पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। लिखती रहिये, भावनाओं की यह वर्षा मत रोकिएग शायद हम से किसी सूखे ठूंठ में कोंपलें ही फुट आयें।

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  3. ट्विटर अकाउंट क्यों बंद कर दिया आपने ?

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