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Thursday, January 24, 2013

मैं और मेरी घड़ी.

रात होने को आई थी. दिन भर की थकान के बाद बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं ख्यालो के समंदर में गोते लगाने लगी. माथे पे मेरी कलाई थी और कलाई में मेरी घड़ी. अचानक मेरे ख्यालो ने घड़ी की सुई के साथ चलना शुरू कर दिया. अब रात के इस सन्नाटे में सिर्फ... मैं थी और मेरी घड़ी.
वैसे किसी ने घड़ी की आवाज़ की पहचान काफी पहले ही बना दी थी...टिक-टिक टिक-टिक. मेरा ध्यान एक बार फिर भटकता है (ध्यान लगाने में मैं काफी कमज़ोर हूँ)....अब मेरा ध्यान मेरे दिल की धडकनों पर जाता है. दिल की आवाज़ भी काफी रूमानी लगती है, हैं ना!! धक-धक धक-धक.अब जैसे-जैसे घड़ी की सुई टिक-टिक करती है,मेरे दिल की धड़कन भी उसके साथ ताल मिलाने लगती है.
टिक-टिक धक-धक!
टिक-टिक धक-धक!
मैंने घड़ी से कहा, "कितना तेज़ भाग रही हो?" घड़ी ने पलटकर कहा, "मैं तेज़ नहीं, तुम धीरे चल रही हो". अब मैं तेज़ भागी,घड़ी पिछड़ गयी..मैं इतराई, मुह चिढ़ाया..लेकिन बोझ थोडा ज्यादा था जिससे मैं जल्द-ही थक गयी. अब घड़ी मुझसे आगे थी....मैं फिर उदास हो गयी, हार मान गयी, थक कर बैठ गयी.
मुई घड़ी रुकी नहीं..लेकिन चलते-चलते अपना हाथ आगे ज़रूर बढाया, मुझे समझाया कि "धीरे भी ना चलो, तेज़ भी ना चलो, तुम मेरे साथ चलो. हाँ, तुम्हारे कंधे पे 'बोझ' है...बहुत सारी 'सोच' है, लेकिन एक-एक पल जैसे-जैसे आगे चलोगी..'बोझ' का संचालन करने में सक्षम हो जाओगी, फिर ये तुम्हे 'भारी' नहीं लगेगा बल्कि ये तुम्हारे लिए 'कवच' की तरह बन जाएगा." मैंने कहा, "शायद तुम ठीक कह रही हो (तभी तो मेरी कलाई पे बंधी हो)..दुनिया भी तो यही कहती है कि तुम शक्तिशाली हो...अनमोल हो. चलो, तो चलते है! ना तेज़, ना धीरे.... तुम्हारे सेकंड की, मिनट की और घंटे की सुई के साथ कदमताल करती हूँ. मज़ा आएगा" *आमीन*

1 comment:

  1. घडी को कहो की साथ चले ..

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